मेरे कई वरिष्ठ पत्रकार साथी जो आज वर्ल्ड मीडिया में आज़ादी के मामले में भारतीय पत्रकारिता को 136वां स्थान मिलने पर करुण क्रंदन कर रहे हैं, वो मेरी बातों से काफ़ी नाराज़ होंगे। क्यूंकि सात अख़बारों में, पांच वेब साइट्स पर, और दो चार छोटी मोटी पत्रिकाओं में 'अभिव्यक्ति की आज़ादी नहीं है' कॉलम लिख के नौकरी से इतर कमाई करना उनका पसंदीदा शग़ल है।
वो कह रहे हैं कि पहले हम 133वें पायदान पे थे अब 136 पे आ गए कितना पतन हो गया पत्रकारिता का! तो बंधुओं आंखें खोलो, आप पहले भी गड्ढे में थे अब भी गड्ढे में ही हो, अगर पैमाना यही रैंकिंग है तो! और अगर ये रैंकिंग पैमाना नहीं है तो ख़ुशी मनाओ कि आप भारत में हो, जहां पत्रकार आतंकवाद की आड़ में मार नहीं दिए जाते। जहां उन्हें मुंह छुपाए दूसरे मुल्कों से रहम की भीख नहीं मांगनी पड़ती। जहां चैनल्स पर देशद्रोही बातों को बढ़ावा देने, आतंकियों की मददगार रिपोर्टिंग करने और बेनामी स्त्रोतों से पैसा उठा कर चैनल चलाने के आरोपों के बावजूद उनकी दुकानों पर ताले नहीं लगते!
जहां सारे दंगों को नज़रंदाज कर के सिर्फ़ एक दंगे की रिपोर्टिंग पर फ़ोकस करने के लिए राजनीतिक पार्टियां आपको पंद्रह साल तक भी पाल लेती हैं। जहां सरकारों में मंत्रियों के विभाग बंटवाने में दलाली करने से लेकर फ़ौजियों की जान जाने की वजह बन जाने तक के आरोपों के बावजूद आप कैमरा माइक लेकर छुट्टे घूम सकें, ऐसी आज़ादी और कहां?
लड़की को मकान ना मिले तो देश को बेकार बता दें, कबाब की दुकान एक घंटे बंद हो जाए तो देश को 'रहने लायक नहीं रहा' घोषित कर दें, सालों साल 'आतंक का कोई धर्म नहीं होता' का जाप करते करते अचानक 'भगवा आतंकवाद - भगवा आतंकवाद' चिल्लाने लगें और फिर भी लोग आपकी सुनते रहे, ऐसा प्रेम कहीं और कहां?
देश के टुकड़े करने का नारा लगाने वालों की पैरवी के लिए टीवी काला कर के बैठ जाएं और फिर भी लोग चैनल चलाए बैठे रहें, ऐसा सम्मान कहीं और कहां?
इसलिए हे मेरे देश के डिज़ाइनर पत्रकारों...
हैपी वर्ल्ड प्रेस फ़्रीडम डे!! ख़ुश रहो, आबाद रहो, दिल्ली रहो चाहे इस्लामाबाद रहो!
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