निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा
अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामा: ।
द्वन्द्वैर्विमुक्ता: सुखदु:खसञ्ज्ञै-
र्गच्छन्त्यमूढा: पदमव्ययं तत्॥
– श्रीमद्भगवद्गीता 15/5
"मान-मोह रहित, सङ्गदोष को जीत लेने वाले, सदा अध्यात्म में स्थित, निवृत्त कामनाओं वाले और सुख-दुःख नामक द्वन्द्वों से मुक्त हुए ज्ञानी पुरुष उस अविनाशी पद को प्राप्त होते हैं।"
अर्थात् जिसके मान-मोह नष्ट हो गये हैं, जिन्होंने आसक्तिरूप दोष को जीत लिया है, जिनकी आत्मस्वरूप में नित्य स्थिति होती है, साथ ही सम्पूर्ण कामनाओं से निवृत्ति हो गयी है , वे सुख–दुःख नामक द्वन्द्वों से विमुक्त ज्ञानीजन उस अविनाशी परमपद को प्राप्त होते हैं ।
श्रीरामानुजभाष्यम्
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एवं मां शरणम् उपगम्य निर्मानमोहाः-निर्गतानात्मात्माभिमानरूपमोहाः, जितसङ्गदोषाः-जितगुणमय-भोगसङ्गख्यदोषाः; अध्यात्मनित्याः- आत्मनि यद् ज्ञानं तद् अध्यात्मम् आत्मध्याननिरताः, विनिवृत्ततदितरकामाः सुखदुःखसञ्ज्ञै: द्वन्द्वै च विमुक्ताः अमूढाः आत्मानात्मस्वभावज्ञाः तत् अव्ययं पदं गच्छन्ति अनवच्छिन्नज्ञाना कारम् आत्मानं यथावस्थितं प्राप्नुवन्ति। मां शरणम् उपागतानां मत्प्रसादाद् एव ताः सर्वाः प्रवृत्तयः सुशक्याः सिद्धिपर्यन्ता भवन्ति इत्यर्थः ।
भाष्य का हिन्दी भाव
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इस प्रकार मेरी शरण ग्रहण कर लेने से जो निर्मान मोह हो चुके हैं यानी जिनका अनात्मविषयक आत्माभिमान रूप मोह नष्ट हो चुका है। जो जितसंग दोष हैं यानी जिन्होंने गुणमय भोगों में आसक्ति रूप दोष को जीत लिया है। जो अध्यात्मनित्य हैं- आत्मविषयक ज्ञान का नाम अध्यात्म है, आत्मविषयक ज्ञान का नाम अध्यात्म है, अतः जो आत्मा के ध्यान में संलग्न हैं। आत्मज्ञान के अतिरिक्त जिनकी समस्त कामनाएँ निवृत्त हो चुकी हैं और जो सुख-दुःख नामक द्वन्द्वों से मुक्त हो चुके हैं। ऐसे आत्मा और अनात्मा के स्वभाव को जानने वाले ज्ञानी उस अविनाशी पद को प्राप्त करते हैं। अर्थात् अनवच्छिन्न (अपरिमित) ज्ञानस्वरूप आत्मा के यथार्थ स्वरूप को प्राप्त कर लेते हैं। अभिप्राय यह कि मेरी शरण ग्रहण वालों की ये समस्त प्रवृत्तियाँ मेरी कृपा से ही सुखसाध्य होकर सिद्धिपर्यन्त पहुँच जाती हैं।
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