रौनक चेहरे
उन आठों की एक ही कहानी थी, दया के पात्र तो वे सब ही के थे लेकिन अवसर उन्हें कोई नहीं देता। पढ़े-लिखे, युवा लेकिन बात ठहरती वहाँ जा कर कि ये कुछ कर भी पाएँगे? वे विकलाँग हैं, बहुत कोफ्त आती, संयोग से आठों का मिलना एक ही जगह हुआ। साथ मिल जाए तो हिम्मत हो ही जाती है, विचार बिल्कुल अनूठा था- एक गौशाला खोलने का। जगह पसन्द की रानिमाई सियादेही के 12 पठारों के बीच मड़वापथरा जँगलों की। जी हाँ, मैं बात कर रहा हूँ छत्तीसगढ़ की। वैसे भी रिहायशी इलाके की जमीन उन्हें देता भी कौन? दूसरा सोचा, जँगलों के बीच होगी तो खुद ही चारे की व्यवस्था कर लेंगे क्योंकि वे जानते थे लोग उन की काबिलियत पर कितना भरोसा करेंगे कि वे चारा खरीद सकें! जब कोई रास्ता नहीं दिखता तब व्यक्ति धरती में भी सुराख कर लेता है, उन्होंने जो कुछ था उससे गौशाला की शुरुआत कर ली।
धीरे-धीरे गाँव और आस-पास उनके हौसलों की बात होने लगी, और एक व्यक्ति ने अपनी तरफ से एक एकड़ जमीन मुहैया करवा दी, तो साधारण किसानों ने अपनी गायें भी उनके पास छोड़ दी। वे विकलाँग थे, तो दूसरे विकलाँग भी उत्साहित हो गौशाला से जुड़ने लगे। इस गौशाला को सिर्फ विकलाँग सम्भालते हैं जो आज 40 हो चुके। तीस वर्षीय भोज कहती हैं कि मैंने सिलाई भी सीखी पर न तो काम मिला और न ही जीवन साथी, आज यहाँ मैं अपनी मेहनत से कमाई रोटी खाती हूँ और सुकून की जिन्दगी जी रही हूँ। पति की मौत के बाद अंजनी को तो उसकी सास ने घर से ही निकाल दिया था। उसने यहाँ के बारे में सुना, देखने आयी और यहीं की होकर रह गयी।
कितना अच्छा हो इस गौशाला से सबक ले ऐसे समाज की सोचने तो लगें जहाँ हर इन्सान के पास बराबर के मौके हों। कितने रौनक होंगे सारे चेहरे!
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