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Wednesday, 19 April 2017
Maa
गढ़ती घट-कुटुम्ब को अविरत, भावों में बह लेती है।
मन ही मन ना जाने कितने, दारुण-दुख सह लेती है।
त्याग तपस्या की तू देवी, तुझसे उऋण नहीं हूँगा।
व्यथा-कथा निज मन की 'माँ', निज मन से ही कह लेती है।
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- चन्द्र भूषण
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