Sunday, 29 May 2016

Singhasth Mahakumbh

बहुत याद आओगे तुम सिंहस्थ..........
तुम्हारे साथ पूरा महीना कब गुजर गया पता ही नहीं चला सिंहस्थ, अब जब तुम चले गये  हो तो तुम्हारे साथ बिताये बहुत सारी बातें याद आ रहीं हैं। पहले तो सोचा ही नहीं था कि तुम इस बार इतने मनभावन और आकर्षक होगे। दरअसल तुम बारह साल बाद आ रहे थे, काफी लंबा वक्त होता है ये। पिछली बार 2004 में जब तुम आये थे तो इतनी धूम धाम नहीं थी। तब उमाश्री भारती प्रदेश की मुख्यमंत्री थी उन्होंने अपने एक मंत्री के हवाले तुम्हारे आने और तुमसे मिलने आने वालों का इंतजाम करने को कह दिया था। तब ना तो उज्जैन शहर को ऐसा चमकाया गया था और ना ही श्रद्वालुओं के ऐसे पलक पांवडे बिछाकर सरकार ने स्वागत किया था। इस बार तो सारा नजारा ही बदला हुआ था। उज्जैन के लोग तो अपने ही शहर को पहचान नहीं पा रहे थे। तुम्हारे आने की खुशी में शहर की रंगत ही ऐसी बदल दी गयी थी। नये नये स्वागत द्वार, सडकें, चौराहे, फ्लाई ओवर, ओवर ब्रिज, लंबे लंबे घाट  बनाये गये। भगवान महाकाल के मंदिर में भी तो लाखों श्रद्वालुओं के आने के हिसाब से बदलाव किये गये। पुण्य सलिला क्षिप्रा में भी इस बार पूरे महीने भर साफ स्वच्छ पानी रहा। जो देश भर से आने वाले श्रद्वालुओं और साधू महात्माओं के लिये संतोष की बात रही। शहर तो चकाचक हुआ ही इस बार मेला क्षेत्र जहां अखाडों और संतों के पंडाल लगते हैं वो इलाका भी तीन गुना बढ गया था। सरकारी कामकाज की गति देखकर पहले तो हम भी डर ही गये थे कि सिंहस्थ तुम्हारे आने की घडी आ गयी है और काम काज अधूरा पडा है। मेला क्षेत्र में बहुत सारे काम बकाया था मगर बाद में सरकार ने तेजी दिखायी और पूरे वक्त प्रभारी मंत्री की डयूटी लगा दी गयी कामकाज निपटाने की। खैर जैसे तैसे पंडालां में बिजली पानी और शौचालय की व्यवस्था की गयी मगर साधू तो साधू वो भला किसी का लिहाज क्यों करते। पंडालों में जरा सी परेशानी वो देखते तो सडकों पर आ जाते और हम मीडिया वाले उन दुर्वासा के अवतारों की खबरें बढा चढा कर दिखाते। सच कहो सिंहस्थ डर तो तुमको भी लगा होगा शुरूआती दिनों की ये अव्यवस्थाएं देखकर। अखिल भारतीय अखाडा परिषद के अध्यक्ष महंत नरेंद्र गिरी महाराज भी कहते थे कि इंतजाम तो बस प्रयाग कुंभ में ही होते हैं बाकी के कुंभ में तो मेला चलता रहता है और व्यवस्थाएं होती रहतीं हैं। ऐसे में तुम अपने को कैसे तसल्ली देते होगे सिंहस्थ मुझे नहीं मालुम मगर मेले के इंतजामों से जुडे नेता मंत्री और अफसरों को अपने से जयादा भगवान महाकाल का भरोसा था। वो बेफ्रिकी से कहते थे अब तक के सारे कुंभ अच्छे से निपटे हैं ये भी सानंद संपन्न जायेगा। देश विदेश में इस मेले को लेकर हुये जरूरत से ज्यादा प्रचार के कारण आने वाली भीड को कैसे संभाला जायेगा ये मेरी चिंता का कारण होता था। मगर मेरी इस घबडाहट पर तुमने कभी मुस्कुराहट नहीं खोयी शायद तुम्हें भी उज्जैयनी के राजा भगवान महाकाल पर ज्यादा भरोसा था। खैर जब पहला शाही स्नान 20 अप्रेल को आया तो मैं घाट पर खडा होकर उस क्षण का गवाह बना जो बारह बरसों के इंतजार के बाद आता है। क्षिप्रा किनारे के राम और दत्त अखाडा घाट पर निकलने वाली शैव वैप्णव और उदासीन अखाडों की शोभायात्राएं और उनमें शामिल हजारों भक्तों का मकसद बस पवि़त्र क्षिप्रा में डुबकी ही होती थी। स्नान के बाद श्रद्वालुओं के चेहरे पर आने वाले परम आनंद और घनघोर संतुष्टी का भाव देखकर मैं खो जाता था सिंहस्थ। तब तुम कहते थे ये सदियों से चली आ रही परंपरा है इसमें कुछ नया नहीं तलाशो। तुम समझाते थे कि ये श्रद्वालुओं की अमृत या मोक्ष पाने का स्नान नहीं है बल्कि नदी किनारे विकसित होने वाली सभ्यताओं में ये तो नदी को पूजने का पर्व है। क्षिप्रा में स्नान पूजन तर्पण कर यहां आने वाले लोग उस पुरानी परंपरा से एकाकार होकर अपने को धन्य मानते हैं। उनको इहलोक और परलोक सुधारने की चाहत नहीं होती जैसा कि प्रचारित किया जाता है। सच मैं तो ये देखकर हैरान रह जाता था कि जितने लोग यहां घाट पर पहुंचे हैं उससे दस गुना ज्यादा श्रद्वालू दूर खडे क्षिप्रा के सानिध्य को उतावले हैं और उनको घुमा फिराकर घाट पर लाया जा रहा है। इस भीड में बडे बुजुर्ग प्रौढ तो थे ही बडी संख्या इस बार मैंने युवाओं की भी देखी जो क्षिप्रा में स्नान को उतावले थे। वो साधु संतों और नागाओं के साथ सेल्फी लेते थे उसे सोशल साइट पर अपडेट करते थे और ढेरों लाइक पाते थे। मगर सिंहस्थ तुम्हारी हिम्मत का भी जबाव नहीं। दूसरे शाही स्नान के बाद जब तेज आंधी तूफान आया और उसमें पंडाल गिरे कुछ लोगों की दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से जान भी गयी तो लगा कि अब तुम निराश हो जाओगे मगर तुम्हारे चाहने वाले अगले ही दिन दुगुनी संख्या में आये और बता दिया कि प्राकृतिक आपदायें श्रद्वा को डिगा नहीं पातीं। मगर तुमसे मिलने भीड उमडी तो अंतिम दिनों में। जैसे जैसे लोगों को पता चला कि तुम्हारे जाने के दिन करीब आ रहे हैं और अब तुम बारह साल के लिये फिर बिछड जाओगे तो लोग उमड पडे तुमसे मिलने। चारों तरफ से उज्जैन आने वाली सडकें पट गयीं। कई किलोमीटर लंबे रास्तों के जाम मैंने सुने थे देखे पहली बार उज्जैन में ही इस बार। आखिर वो क्या था जो इस बार तुमसे मिलने इतने लोग इस तेज गर्मी और प्राकृतिक आपदा के बाद भी आये तो इसका जबाव मुझे स्वामी अवधेशानंद जी ने दिया। उनके मुताबिक ये आस्था का चमत्कार है जो देश विदेश से लाखों की संख्या में लोग आये। ये आस्था ही जो अपेक्षा नहीं रखती। किसी से कोई शिकवा शिकायत नहीं। सडक किनारे चलते पोटली सर पर रखे हजारों लोग यही संदेश दे रहे थे कि हम तो सिंहस्थ से मिलने आये थे। हमारे पुरखे भी यहां आते थे। और हमारे बच्चे भी यहां आयेंगे। यही हमारा मोक्ष है। मुझे अब पता चला कि तुम ऐसी ही परंपराओं के दम पर जिंदा हो सिंहस्थ। यही तुम्हारी ताकत और यही तुम्हारा आकर्षण है। अब यदि कोई सरकार ये माने कि हजारों करोड खर्च कर किये गये इंतजामों के कारण सिंहस्थ तुमसे मिलने लाखों लोग आये हैं तो इस सोच पर क्या कहा जाये। मुझे मालुम हैं कि लोग तुम्हारे नाम से अपनी राजनैतिक वैचारिक रोटियां भले ही सेंक लें। मगर तुमको और तुम्हारे श्रद्वालुओं पर इसका कुछ फर्क नहीं पडेगा। सदियों की इस परंपरा में शासक और सरकारें तो आती जाती रहती हैं।                      
तुम जा रहे हो सिंहस्थ पर याद आओगे बहुत।         
सौरभ दुबे....

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