Tuesday, 13 October 2015

लौकिक सुखों से परे सच्चा सुख

लौकिक सुखों से परे सच्चा सुख
एक गाँव के मंदिर में एक बह्मचारी रहता था। लोभ,मोह से परे अपने आप में मस्त रहना उसका स्वभाव था। कभी-कभी वह यह विचार भी करता था कि इस दुनिया में सर्वाधिक सुखी कौन है? एक दिन एक रईस उस मंदिर में दर्शन हेतु आया। उसके मंहगे वस्त्र,आभूषण,नौकर-चाकर आदि देखकर बह्मचारी को लगा कि यह बड़ा सुखी आदमी होना चाहिए। उसने उस रईस से पूछ ही लिया। रईस बोला-मैं कहाँ सुखी हूँ भैया! मेरे विवाह को  ग्यारह वर्ष हो गए,किन्तु आज तक मुझे संतान सुख नहीं मिला। मैं तो इसी चिंता में घुलता रहता हूँ कि मेरे बाद मेरी सम्पति का वारिस कौन होगा और कौन मेरे वंश के नाम को आगे बढ़ाएगा? पड़ोस के गांव में एक विद्वान पंडित रहते हैं। मेरी दृष्टि में वे ही सच्चे सुखी हैं।
ब्रह्मचारी विद्वान पंडित से मिला,तो उसने कहा-मुझे कोई सुख नहीं है बंधु,रात-दिन परिश्रम कर मैंने विद्यार्जन किया,किन्तु उसी विद्या के बल पर मुझे भरपेट भोजन भी नहीं मिलता। अमुक गांव में जो नेताजी रहते हैं,वे यशस्वी होने के साथ-साथ लक्ष्मीवान भी है। वे तो सर्वाधिक सुखी होंगे। ब्रह्मचारी उस नेता के पास गया,तो नेताजी बोले-मुझे सुख कैसे मिले? मेरे पास सब कुछ है,किन्तु लोग मेरी बड़ी निंदा करते हैं। मैं कुछ अच्छा भी करूँ तो उसमें बुराई खोज लेते हैं। यह मुझे सहन नहीं होता। यहां से चार गांव छोड़कर एक गांव के मंदिर में एक मस्तमौला ब्रह्मचारी रहता है। इस दुनिया में उससे सुखी और कोई नहीं हो सकता। ब्रह्मचारी अपना ही वर्णन सुनकर लज्जित हुआ और वापिस मंदिर में लौटकर पहले की तरह सुख से रहने लगा। उसे समझ में आ गया कि सच्चा सुख लौकिक सुखों में नहीं है बल्कि वह तो लौकिक चिंताओं से मुक्त अलौकिक की निः स्वार्थ उपासना में बसता है। समस्त भौतिकता से परे आत्मिकता को पा लेना ही सच्चे सुख व आनंद की अनुभूति कराता है।
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