Saturday, 6 June 2015

डियर मैगी,

डियर मैगी,

दिल दुखता है
जब-जब ये सुनता हूँ
तुम बैन होने जा रही हो,
आख़िरी बार जब तुम्हें खाया था, तो पैकेट फेंक दिया था डस्टबिन में,
दिल करता है तुम्हारे पीले पैकेट को डस्टबिन से उठाकर सीने से लगा लूं,
तुम्हारे टेस्टमेकर के चमकीले पैकेट को डायरी में छुपाकर रख लिया है,
लोग गुलाब छुपाकर रखते
हैं,
खुशबू को बाँध कर रख लेना चाहते हैं,
मैं टेस्ट मेकर की खुशबू
बाँधकर रखना चाहता हूँ,
उसे साँसों के रास्ते पेट तक पहुँचाना चाहता हूँ,

सच कहता हूँ आज तक कभी तुमसे कोई शिकायत न रही,
कभी ये नहीं सोचा कि तुम दो मिनट में तैयार क्यों नही होती,
समझता हूँ मजबूरी तुम्हारी, वक़्त लगता है,
‘मैगी’ लड़कियों सा नाम है, आज तक कोई लड़की दो मिनट में तैयार हुई है कभी?
जो तुम तैयार हो जाती,
कभी इस पर अफ़सोस नहीं किया कि तुमने अपना वजन क्यों घटा लिया?
क्यों तुम पाँच से छह, दस से बारह, और बीस से तेईस
की हो गई,
शायद यही विकास है,
विकास की कीमत चुकानी ही पड़ती है,

तुम सिर्फ ब्राण्ड नही हो,
जैसे निरमा, सिर्फ निरमा
नही, कछुआ,
सिर्फ कछुआ नही,
ब्राण्ड नही हो तुम,
तुम विद्रोह की जननी हो,
घर के किचन में मम्मी-बहनों-चाचियों का साम्राज्य था
तुमने हमें किचन में घुसने का साहस दिया,
हजार सालों में जो कोई नहीं कर सकता था तुमनें कर दिया,

दबाए-सताए और किचन से भगाए हम बेचारों के लिए तुमने किचन का रास्ता खोल दिया,
वर्ना हमें तो बस गेंहू और गीली दाल पिसाने के काबिल समझा जाता था,
किचन में घुसने को भी तब मिलता जब सिलेंडर बदलना हो,
हमें झिड़का जाता था,
हमें रोटियाँ बेलनी नहीं आती थी,
नहीं पता था कैसे चावल में तीन ऊँगली पानी ज्यादा डालकर उसे भात बना दिया जाता है,
नही पता था पराठों में आलू कहाँ से घुस जाते हैं,

फटकना-बीनना, गूंथना-बेलना, उबालना-सेंकना, तलना-छानना, ओटना-घोटना, सेराना-मोना, पुटकी देना
हमें कुछ नहीं आता था,
हमें बस आग लगानी आती थी,
किए-कराए पर पानी फेरना आता था,
जले में नमक छिड़कना आता था,

तुम हाथ लगी तो पता चला इन गुणों से तुम्हें मिलाकर पेट भी भरा जा सकता है,
तुम न होती तो जाने कितने लड़के घर से निकलने की हिम्मत न जुटा पाते,
कितने सपनों की
‘बाहर
कितने दिन खायेगा?’
सरीखे सवालिया औजारों से भ्रूण-हत्या कर दी जाती,
कितने तो मेस के आलू-मटर में मटर तलाशते रहते,

तुम हाथ लगी तो लगा हम पीसीओ से स्मार्टफोन में आ गए,
अब माँएं हमें हर शाम लौकी की सब्जी नही खिला सकती थीं,
मेस की थाली में पनियल दाल में दाल तलाशने के लिए डूबना नहीं पड़ता था,

हमें पता था एक पैकेट मैगी रखी है हम उससे भूख मिटा सकते हैं,
पेट भर सकते हैं,
जान बचा सकते हैं,
एक्जाम के दिनों में हम रात-रात भर पढ़ते और तुम रात-रात भर पकती,

मैंने नौकरी की, सेक्टर-सेक्टर दिल भटका, ब्लॉक-ब्लॉक पर आह भरी,
वहां भी तुम पीछे खड़ी नजर आई, दिलासा देती, पुचकारती, "घर पहुँचो मैं हूँ न!"
हर सफल आदमी के पीछे एक औरत का हाथ होता है मेरे पीछे तुम्हारा पैकेट था,
पर हर भली चीज का एक अंत होता है वो कहते हैं तुममें MSG
ज्यादा है,
लेड ज्यादा है,
लाख बाते कहते हैं,
पर मानता कौन है?
कहने वाले कहते हैं तुम्हें खाएंगे तो मर जायेंगे
वो नही समझते न खाकर जीना भी कौन सा जीना है?
वो तुम्हें बैन करने को कहते हैं,
शायद कर भी दें फिर तुम दिखो न दिखो,
शायद तुम हमारी जिन्दगी मुश्किल बना रही हो,
पर तुम्हारे बिना भी जिन्दगी आसान न होगी,
पर दिल कहता है, ये षड्यंत्र है, साजिश है तुम्हारे खिलाफ,
मेरे खिलाफ, हर उस लड़के के खिलाफ जिसने किचन में खड़े होने की हिम्मत दिखाई,
जिसने वो बेड़ियाँ तोड़ीं जो
‘दूध उबालना तक तो आता नही’ कहकर कास दी जाती थीं,
उस लड़के के खिलाफ जिसने आग लगाईं, एक भगोने में पानी
उबाल रसोई के सारे नियम बदल दिए,
ये साजिश है उन तमाम
माँओं की जो चाहती हैं हम सुबह-शाम सिर्फ लौकी खाएं,
इस षड्यंत्र में प्रधानमंत्री भी शामिल हैं, वो तो चीन गए थे, फिर नूडल्स पर बैन क्यों?
यही है विदेश नीति?
यही हैं अच्छे दिन?
सवाल बहुत हैं जवाब नही,
तुम भी नही,
बस एक मैं हूँ..

तुम्हारा,


भूखा लड़का..

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